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सफेद मूसली (Chlorophytum borivilianum) एक औषधीय पौधा है जो मुख्यतः भारत के जंगलों में पाया जाता है। आयुर्वेद, यूनानी, और होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धतियों में इसका उपयोग पुरुषों की ताकत बढ़ाने, रोग प्रतिरोधक क्षमता सुधारने और अन्य कई बीमारियों के इलाज में किया जाता है। इसकी जड़ों में सैपोनिन, एल्कलॉइड्स और फाइबर की भरपूर मात्रा होती है।

भारत में प्रमुख उत्पादन क्षेत्र

सफेद मूसली की खेती महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, गुजरात और दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में होती है।

जलवायु और मिट्टी की आवश्यकता

  • जलवायु: मूसली को उष्णकटिबंधीय और उप-उष्णकटिबंधीय जलवायु पसंद है। गर्म और आद्र्र जलवायु इसकी वृद्धि के लिए उत्तम मानी जाती है।
  • मिट्टी: दोमट या हल्की रेतीली दोमट मिट्टी जिसमें जल निकासी की सुविधा हो, मूसली के लिए आदर्श है। पीएच स्तर 6.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए।

प्रजातियाँ (Varieties)

भारत में सफेद मूसली की कुछ प्रमुख प्रजातियाँ निम्नलिखित हैं:

  1. Jeevanrekha
  2. RAS-2005
  3. RAU-SM-Sel-1
  4. MUSLI-1

इनमें MUSLI-1 उच्च उत्पादन देने वाली और रोग प्रतिरोधक क्षमता वाली प्रजाति मानी जाती है।

खेती की विधि

1. खेत की तैयारी

  • पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें।
  • इसके बाद 2-3 बार कल्टीवेटर से जुताई कर खेत को समतल और भुरभुरा बना लें।
  • गोबर की सड़ी हुई खाद (10-15 टन/हेक्टेयर) खेत में अच्छी तरह मिला लें।

2. बुवाई का समय

  • जून से जुलाई के बीच वर्षा ऋतु में इसकी बुवाई की जाती है।
  • कंद (Tuber) को 20-25 सेमी की दूरी पर 5-7 सेमी गहराई में बोया जाता है।

3. बीज मात्रा

  • प्रति हेक्टेयर 300-350 किलोग्राम स्वस्थ कंदों की आवश्यकता होती है।

सिंचाई और खरपतवार नियंत्रण

  • शुरुआती 30 दिनों में नियमित सिंचाई आवश्यक है।
  • वर्षा न होने की स्थिति में 10-15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें।
  • 2-3 बार निराई-गुड़ाई कर खरपतवार नियंत्रित करें।

कीट और रोग नियंत्रण

  • सफेद मूसली में आमतौर पर कीटों का प्रकोप कम होता है।
  • जड़ सड़न (Root Rot) रोकने के लिए जल निकासी का ध्यान रखें।
  • जैविक फफूंदनाशक जैसे ट्राइकोडर्मा का प्रयोग उपयोगी होता है।

कटाई और उपज

  • फसल अवधि: 8-10 महीने
  • कटाई: जब पत्ते पीले पड़ने लगें तब कंदों को सावधानीपूर्वक खोद कर निकालें।
  • उपज: औसतन 3-4 टन/हेक्टेयर सूखी जड़ें प्राप्त होती हैं।

प्रसंस्करण और विपणन

  • जड़ों को अच्छी तरह धोकर छाया में सुखाया जाता है।
  • पूरी तरह सूखने के बाद उन्हें छीलकर पैक किया जाता है।
  • बाजार: दवा कंपनियां, आयुर्वेदिक उत्पाद निर्माताओं और निर्यातकों को बेचा जाता है।

आर्थिक लाभ

  • सफेद मूसली की सूखी जड़ों की बाजार में कीमत ₹1500 से ₹3000 प्रति किलोग्राम तक हो सकती है।
  • एक हेक्टेयर में औसतन ₹5 से ₹10 लाख तक की आय अर्जित की जा सकती है, जो परंपरागत फसलों की तुलना में कहीं अधिक है।

सरकारी सहायता और प्रशिक्षण

  • कई राज्य सरकारें औषधीय पौधों की खेती पर सब्सिडी देती हैं।
  • राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड (NMPB) किसानों को प्रशिक्षण एवं बीज उपलब्ध करवाता है।

लागत और मुनाफा (Profit Calculation)

यहाँ पर एक हेक्टेयर में सफेद मूसली की खेती की संभावित लागत और मुनाफे का एक मोटा अनुमान दिया गया है:

क्र.सं.खर्च का मदअनुमानित राशि (₹)
1खेत की तैयारी एवं मजदूरी₹15,000
2बीज (कंद) – 300 किग्रा × ₹300/kg₹90,000
3खाद, जैविक उर्वरक आदि₹10,000
4सिंचाई, खरपतवार नियंत्रण₹8,000
5कटाई, प्रसंस्करण और पैकिंग₹12,000
6परिवहन और विपणन₹5,000
कुल लागत₹1,40,000

उपज और आय

  • सूखी जड़ें (Dry Roots) की उपज: लगभग 3 टन/हेक्टेयर (3000 किग्रा)
  • बाजार मूल्य: ₹1500–₹2500 प्रति किग्रा (औसत ₹2000)

कुल आय = 3000 × ₹2000 = ₹60,00,000

कुल मुनाफा (Net Profit)

  • कुल मुनाफा = कुल आय – कुल लागत
    = ₹60,00,000 – ₹1,40,000
    = ₹58,60,000 प्रति हेक्टेयर (1 सीजन में)

यदि किसान सीधे आयुर्वेदिक कंपनियों से जुड़ें या प्रोसेसिंग करके बेचें तो मुनाफा और भी अधिक हो सकता है।

उद्यमिता के अवसर

  • औषधीय प्रसंस्करण इकाई शुरू कर सकते हैं।
  • मूसली आधारित स्वास्थ्य उत्पाद (कैप्सूल, चूर्ण) बनाकर ब्रांडिंग की जा सकती है।
  • एक्सपोर्ट मार्केट (विदेशी कंपनियाँ) से संपर्क कर अतिरिक्त कमाई संभव है।

निष्कर्ष

सफेद मूसली की खेती कम भूमि में अधिक आय देने वाली और पर्यावरण के अनुकूल औषधीय फसल है। उचित तकनीक और देखभाल के साथ इसकी खेती करके किसान अच्छी आमदनी कमा सकते हैं। भविष्य में आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा के बढ़ते बाजार को देखते हुए इसकी मांग और भी बढ़ेगी।

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